शुक्रवार, 17 जुलाई 2009

क्या कहूँ कि लिख बैठा हूँ

क्या कहूँ कि लिख बैठा हूँ
फिर लेखनी में मिट बैठा हूँ
क्या कहूँ कि लिख बैठा हूँ

लिख बैठा कि उदास हुआ हूँ
कब से लेखनी से दूर रहा हूँ
दौड़ रहा हूँ, भाग रहा हूँ,
अपने से बोलूं, अपनी ही सुनूँ
कम ही ऐसा समय पाया हूँ
लेकिन अबके न रह पाया हूँ
क्या कहूँ कि लिख बैठा हूँ

बिसरा बैठा हूँ कोयल कि कू-कू
जंगल कि खुसबू, नदी कि सों-सों
दूर हिमालय का श्वेताम्बर मुकुट
भोर-सांझ चमकते मेघों का झुरमुट
उकसा रहा ये समय का चिरकुट
कम कहता पर कह बैठा हूँ
क्या कहूँ कि लिख बैठा हूँ

1 टिप्पणी:

Jyotsna ने कहा…

parr lag raha hai ki main baat nahi kahi !

Good one.